यह हमें समझना होगा की हमारी स्वयं की वृतियों से बाहरी संसार का निर्माण होता है । अर्थात जो कुछ भी दिखाई देता है वह वस्तुतः समष्टि रूप से हमारा ही रूप है । यह रूप अगर अच्छा है तो बलिहारी है ,अन्यथा चिंता का विषय है ,इसमें कोई संदेह नहीं ।
वैदिक राष्ट्र की कल्पना इसका अचूक समाधान है । जो वस्तुतः हमारे भीतर की दुनिया का रूपांतरण है । राष्ट्र शब्द के बारे में विचार करने पर हम को ज्ञात होगा कि यह शब्द दो अक्षरों से निर्मित है । राष~ + त्र । संस्कृत में राः एक प्रकार की सम्पदा को कहते है जो आध्यात्मिक है । त्र का तात्पर्य तीन से है । जो तीन प्रकार की अध्यात्मिक सम्पदा से युक्त हो वही हमारे व्यक्तित्व का वांछित राष्ट्र है ।
' रा ' धातु से तीन शब्द निकले है,राति .रायः और रयि । इनका श्रेयस्कर रूप ही इच्छित है ।
राति भौतिकता से सम्बंधित है , यह प्रकृति प्रदत्त है । स्थूल देह ,भूमि व धन इसीके अंतर्गत है । इसकी वृद्धि संभव है ।
रायः मानसिक सम्पदा है । इसके अंतर्गत उत्तम विचार ,भावना और संस्कार आते है ।
रयि आत्मिक सम्पदा है ,इसमें श्रद्धा ,संकल्प शक्ति दया करुणा इत्यादि परिगणित है ।
वाजी आत्मा का नाम है जो प्राणों में रहता है । यह आत्मा ही राष्ट्र का निर्माता है । ये द्वेपायन नहीं अर्थात एक स्थान में द्वीप वत नहीं रहता बल्कि व्याप्त है ।
''यो रोहितो विश्वं इदं जजान , स त्वा राष्ट्राय सु भृतम विभर्तु ।''
जो (रोहितो ) चढ़ा हुआ -वर्धित होता हुआ -ब्रह्म है (इदं विश्वं ) इस भीतरी संसार में उत्पन्न हुआ है तात्पर्य है आत्मा का उत्थान रोहित ब्रह्म की कृपा से होता है ,वही राष्ट्र के लिए इस आत्मा को भली प्रकार धारण करे ।
हम भीतरी सम्पदा इसी रोहित ब्रह्म से प्राप्त करते है और सु राष्ट्र का निर्माण करने में समर्थ होते है । वही बाहरी भोतिक राष्ट्र के सुसंचालन का हेतु बनकर वांच्छित राष्ट्र का निर्माण कर सकता है ।
Thursday, 13 December 2012
Vedic Nation
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