"स्व धर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।"
हे अर्जुन! स्व धर्म का पालन करते हुवे मृत्यु को प्राप्त होना श्रेय कर है । लेकिन परधर्म में मरना भयप्रद है ।
स्व धर्मं और परधर्म क्या है इस पर विचार करने पर हमें ज्ञात हो सकता है की हमारी दिशा किस और होनी चाहिए।
यहाँ हिन्दू मुस्लिम सिख इशाई इत्यादि संकुचित अर्थ नहीं लेने चाहिये ।
मूल रूप से देखे की स्व क्या है और पर क्या है ।
हमारी चेतना वस्तुतः संसार के कार्यो में उल्जी रहती है । प्रति क्षण अपनी प्रवृतियों कल्पना का तानाबाना बुनने में व्यस्त रहती है ।
चेतना का केंद्र बिंदु कर्ता पन से ग्रस्त रहता है । यह कर्ता ही हमारी चतना बनी हवी रहती जिसे हम अहम् बुद्धि कह सकते है । शारीर की इन्द्रियों के माध्यम से कर्म इसके द्वारा होते रहते है ।
अहम् से उपरि स्तर शुद्ध आत्मा का है जिसे 'स्व " कहा जाता है । जब चेतना अपनी स्थिति से उपर को चल ने के लिए जो साधना मार्ग अपनाती है तो वही उसका धर्म बन जाता है ।इसे ही गीता की भाषा में "स्व धर्म " कहा है ।
परन्तु जब हमारी चतना अपने स्तर से नीचे इन्द्रियों के मार्ग से गमन कराती हुई संसार में रमण कराती है तो वह 'परधर्म " कहा जाता है ।क्यों कि आत्मा से परे है अतः इस मार्ग के साधन पर धर्म ही कहे जायेंगे ।
जब कृष्ण यह कहते है की पर धर्म भयावह है तो मतलब यही है की इन्द्रियों का अनुसरण बड़ी भयावह स्थिति उतपन्न करदेती है । स्व धर्म का थोडा पालन भी श्रेय देने वाला है ।
उपनिषद के अनुसार दो ही मार्ग है एक श्रेय दूसरा प्रेय मार्ग ।
स्वधर्म को ही श्रेय जनक कहा है ।
परधर्म प्रिय है इन्द्रियों को इसलिए प्रेय मार्ग है ।
हम को कृष्ण के सही अर्थ समझने में भूल नहीं करनी चाहिए ।
पर धर्म का अर्थ हिन्दू धर्म के अलावा दूसरा धर्म होगा यह बचकानी बात होगी क्योंकि उस काल में दूसरा सम्प्रदाय का कही उल्लेख नहीं मिलता ।
फिर कृष्ण सम्प्रदाय शब्द ही प्रयोग करते न की धर्म ।
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