मृत्यु के सम्बन्ध में एक स्थान पर कहा गया की जब तुम इसके पद को परे धकेलते हुवे चलोगे तो दीर्घ और विस्तृत आयु को धारण करने वाले बनोगे | इसके साधनो में शुद्धि और पवित्रता के साथ यज्ञीय बन जाने का आग्रह है |
मृत पदार्थ को ही मृत्यु के पद कहा जासकता है |जो प्रतिपल विनाश की और गतिशील है | बाह्य जगत और अन्तः जगत दोनों ही इस श्रेणीके अंतर्गत आजाते है |हमारी इन पदार्थो के प्रति लालसा और आसक्ति जहाँ एक और वृतियों में जटिलता पैदा करती है वही स्वार्थ वशात् कर्मो के चक्र में झोंक देती है |
आंतरिक विश्व में इसका प्रभाव ये होता है कि अन्तःकरण में मलिनता का प्रादुर्भाव होने लगता है | जो विभिन्न प्रकार के रोगो का जनक बनकर दुखों की ओर अग्रसर करती है | चेतना एक संकुचित दायरे में स्वयं को प्रताड़ित अनुभव करने लगती है | इसे हम आयु का ह्रास मान सकते है | यहाँ आयु शब्द पर विचार करे तो लगेगा "अ " का दीर्घत्व और विस्तार ही 'आ ' है | इस "आ" से युक्त होना ही आयु है | आंतरिक विश्व में ये "अ " क्या है जिसका दायरा बाह्य जगत तक फैला हुवा है | यहाँ उस ओंकार का अ उ म के प्रथम अक्षर को लिया जासकता है | जो उस परब्रह्म का द्योतक बना हुवा है |
मृत्यु के पद को परे धकेलने की प्रक्रिया में जहाँ बाह्य शुद्धि पर हमारा ध्यान हो वही आंतरिक पवित्रता के लिए साधना करनी अति आवश्यक हो जाती है | निस्वार्थ भाव से कर्म इसकी एक अमूल्य सीढ़ी है |
लोक में आयु जन्म और मृत्यु के मध्य की अवधि से तात्पर्य रखती है | वस्तुतः मृत्यु और जन्म के मध्य का दीर्घत्व और विस्तारही आयु है ,ये हम जान सकते है | यहाँ जन्म का तात्पर्य ब्रह्म का प्रादुर्भाव है यही अमृतत्व है | इस स्थिति में जो कर्म उत्पन्न होते है वे प्रकृष्ट होने से प्रजा कहलाते है | वही उसकी सम्पति या धन है |
Friday, 18 April 2014
मृत्यु का पद और ब्रह्म का आविर्भाव
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This one from Rig 10 th mandle
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