परमसत्ता हमें सदा आनंद में क्यों नहीं रखती ,हम क्यों कुछ ही समय में दुःख के वातावरण में स्थित होने लगते है | इसके लिए एक स्थान पर कहा गया 'भद्रं भवाति नः पुरः " हमारे अग्र मे जो स्थान है वहां भद्रता ही बरसती है | पुरः शब्द से ही पुरोहित शब्द बना है | जो जन सामान्य में अग्र स्थान में रह कर हित या भला करे वो ही पुरोहित है | परन्तु आध्यात्म में पुर या अग्रणी कौन है और कहाँ है , तब ज्ञात होगा की हमारे दोनों नेत्रों के मध्य का भाग ही वह पुरः है जहाँ वह पुरोहित निवास करता है | वह परम सत्ता जो भ्रूमध्य में निवास कर हमेशा ही भला करने को तत्पर है वास्तविक पुरोहित है या जो पुर में निहित है | वह सत्ता मात्र कल्याण ही नहीं करती वरन सुख भी देने को अग्रसर हो रही है " इन्द्रश्च मृडायति नो .." | जब् ध्यान के मार्ग पर साधक उस इन्द्र को अपने पुर स्थान मे संपर्क करने लगता तो भद्र और सुख दोनों ही पदार्थ मिलते है और निश्चित रूप से मिलते है |परमसत्ता की कल्याण वर्षा
अब दुःख या चिंताओं में फिर फिर हम क्यों जाने लगते है इसके बारे में बताया कि " पश्चात अघं न नशत् " पश्चात का पाप न लगे | कर्म करने के बाद जो पीछे पीछे लगा रहता है उसको अघ कहा है | कर्म अच्छा हो या बुरा उसके पीछे हमारे भीतर एक अहम का निर्माण होता है | साथ ही चित्त पर उन कर्मों कि छाप पड़ती है | जो पुनश्च कर्मो की और लगाती है | अहम और संस्कार प्रकृति के नियमों में बंधे हमको अवांच्छित वातावरण में पटकते रहते है |
उपाय रूप में यह कहा गया की उस इन्द्र को पुर में ध्यान द्वारा प्राप्त करो वह सदा ही सुख और आनंद के लिए उपलब्ध है ,हमेशा ही कल्याण की वर्षा करता है | तब हमारा अहम और संस्कार निश्चय ही प्रकृति के बंधन से स्वतन्त्र होने की दिशा में चल पड़ेंगे |
इन्द्रश्च मृडयाति नो ,न नः पश्चात् अघं नशत् ||
भद्रं भवाति नः पुरः || ऋग् वेद २०/४१/11
Tuesday, 19 August 2014
परमसत्ता की कल्याण वर्षा
Tuesday, 3 June 2014
अंधी पुत्री का विवाह और अक्षर ब्रह्म
यस्य अनक्षा दुहिता जातु आस कस्ताम् विद्वान अभिमन्यते अंधाम ,कतरो मेनिम प्रति मुच्यते य इम वहाते य इम वा वारयेत् | ऋग्वेद १०-२७-११ब्रह्म को अक्षर कहा गया है | यह ब्रह्म समस्त शक्तियों का स्रोत है | हमारे भीतर चित और अचित स्तर से निरंतर विभिन्न प्रकार से ये धाराएं बह रही है | चित और अचित द्वार दोनों ही इस अक्षर जुड़ें है | अधिकतर मानव समूह अचित स्तर से आरही धाराओं से जुड़ा है | परिणाम स्वरूप वह ब्रह्म अज्ञात बना रहता है |जो अपने ही अक्ष पर रमन करता है वही अक्षर है | संस्कृत में अक्ष नेत्र को भी कहा गया है | अक्ष विवेक दृस्टि है | तो अन अक्ष अंध दृष्टि है | लोक में अंधे के लिए अनक्षा शब्द प्रयोग होता ही है | जब अचित स्तर से अक्षर ब्रह्म से प्राप्त शक्ति पर निर्भर रह कर व्यक्ति व्यवहार करता है तो वह शक्ति ब्रह्म से प्रसूत होने से पुत्री कही गई | यह अंधी पुत्री है | अचित स्तर पर अक्ष से अनक्ष की और गति होना ही अंधत्व का कारण बना हुवा है | वेद मन्त्र यह प्रश्न करता है कि इस अंधी पुत्री को कोई विद्वान ज्ञानी स्वीकार नहीं करता | इस शक्ति को इम कहा गया | इस 'इम' को ब्याहने वाला और वरण करने वाला "मेनिम" है | यहाँ नेमी और मेनिम वर्ण विपर्यय है | नेमी चक्र कि धुरी को कहा जाता है तो मेनिम धुरी से दूर कि स्थिति है | अक्ष से दूर चैतन्य का ह्रास होता रहता है | मानवीय गुणों से रहित स्थिति बन जाती है | प्रेम ,दया करुणा लुप्त प्राय होजाते है | तो यहाँ कहा गया जो इस अंधी से विवाह या वरण करता है वो मेनिम है ,वह जड़ बुद्धि है | इस का छुटकारा कठिन है |अतः चित स्तर पर उस ब्रह्म से जुड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए | तब ब्रह्म से उद्भूत पुत्री अंधी नहीं कही जायेगी | फिर इस पुत्री का विवाह या वरण क्लेश परक नहीं होगा | संसार में योगी लोग जो साक्षी होने कि साधना करते है वह वस्तुत उस "अक्ष ' से जुड़ने का प्रयास ही है | होश में जीना भी चित स्तर से अक्षर को जान कर उसीमे स्थित होने का अभ्यास है | संसार में क्लेश का मूल इस अंधी के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ना ही है | इसके साथ हमने विवाह कर लिया अब जीवन सुखपूर्वक कैसे व्यतीत हो सकता है | इसका चुनाव भी दुखदायक है तो इसका साथ की कल्पना की जासकती है | अतः प्रत्येक कर्म को साक्षी भाव से करने में समय लगाना ही बुद्धिमानी है |
Friday, 18 April 2014
मृत्यु का पद और ब्रह्म का आविर्भाव
मृत्यु के सम्बन्ध में एक स्थान पर कहा गया की जब तुम इसके पद को परे धकेलते हुवे चलोगे तो दीर्घ और विस्तृत आयु को धारण करने वाले बनोगे | इसके साधनो में शुद्धि और पवित्रता के साथ यज्ञीय बन जाने का आग्रह है |
मृत पदार्थ को ही मृत्यु के पद कहा जासकता है |जो प्रतिपल विनाश की और गतिशील है | बाह्य जगत और अन्तः जगत दोनों ही इस श्रेणीके अंतर्गत आजाते है |हमारी इन पदार्थो के प्रति लालसा और आसक्ति जहाँ एक और वृतियों में जटिलता पैदा करती है वही स्वार्थ वशात् कर्मो के चक्र में झोंक देती है |
आंतरिक विश्व में इसका प्रभाव ये होता है कि अन्तःकरण में मलिनता का प्रादुर्भाव होने लगता है | जो विभिन्न प्रकार के रोगो का जनक बनकर दुखों की ओर अग्रसर करती है | चेतना एक संकुचित दायरे में स्वयं को प्रताड़ित अनुभव करने लगती है | इसे हम आयु का ह्रास मान सकते है | यहाँ आयु शब्द पर विचार करे तो लगेगा "अ " का दीर्घत्व और विस्तार ही 'आ ' है | इस "आ" से युक्त होना ही आयु है | आंतरिक विश्व में ये "अ " क्या है जिसका दायरा बाह्य जगत तक फैला हुवा है | यहाँ उस ओंकार का अ उ म के प्रथम अक्षर को लिया जासकता है | जो उस परब्रह्म का द्योतक बना हुवा है |
मृत्यु के पद को परे धकेलने की प्रक्रिया में जहाँ बाह्य शुद्धि पर हमारा ध्यान हो वही आंतरिक पवित्रता के लिए साधना करनी अति आवश्यक हो जाती है | निस्वार्थ भाव से कर्म इसकी एक अमूल्य सीढ़ी है |
लोक में आयु जन्म और मृत्यु के मध्य की अवधि से तात्पर्य रखती है | वस्तुतः मृत्यु और जन्म के मध्य का दीर्घत्व और विस्तारही आयु है ,ये हम जान सकते है | यहाँ जन्म का तात्पर्य ब्रह्म का प्रादुर्भाव है यही अमृतत्व है | इस स्थिति में जो कर्म उत्पन्न होते है वे प्रकृष्ट होने से प्रजा कहलाते है | वही उसकी सम्पति या धन है |
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