Monday, 23 September 2013

The boon for INDRA and fruit of devotion

We see one of the great story about the Indra.Indra who always anxious about his throne or kingdom. So he got a boon from Shiva that whoever does any kind of penance or meditation ,the fruit for this act must be come to him(Indra).But Shiva gave the boon with one condition.If a devotee would drop a water droplet beneath his seat and this drop by his finger put on his forehead ( tilak ) then its benefit would go to the devotee. Indra satisfied with this condition and pleased.Because he knew that no one aware about this act.In Sanskrit language water is indicated through a word Apah (आपः) and also synonyms to Praan .In the meditation first subtle prana should be active.That prana must be in Sushuma naadi or nerve.which is located between two eyes (Bhrumadhy).When a meditator fix his gaze in this nerve ,consciousness trevels on higher realm.When Saadhak does not act this action then its fruit would go to Indra.Sushumna only gives benefit to Saadhaka,otherwise prana flow to Ida or pingala nerve.Saadhak might deprived from the higher state of consciousnessIndra actually rules or the owner of Indriyaas.Medation in Ida may produce the tamo gun in consiousness,further after meditation this enjoys through the organs.Likely Pingla nerve charged and Rajo gun active.Indra lives this kingdom and it is his heavenIt is must that subtle prana first sthir (aasan) in the sushumna nerve.Then only yogi gets the desired fruit and trevels Indriyaatit state touches the higher realm of consciousness.

एक कथा प्रचलित है | इन्द्र को अपने आसन की चिंता थी | सो इसने शिव से एक वरदान प्राप्त कर लिया की जो भी  व्यक्ति भक्ति करेगा उसका फल मुझे मिल जाये |तो शिव ने एक शर्त पर ऐसा वर देदिया की जो भक्त आसन के निचे जल की  बूंद डाल उसका  भ्रूमध्य में तिलक  लगा लेगा उसकी भक्ति का फल तुम्हे नहीं मिलेगा | हा जो इसे नहीं करेगा उसका फल तुमको ही मिलेगा | इस वरदान से इन्द्र प्रसन्नचित हो गया | क्यों की उसे ज्ञात था ऐसा करने वाले भक्त कम ही है | उस तप के फल से  अपने राज्य का सुख भोग सकेगा |वस्तुतः इस कथा के माध्यम से एक गूढ़ रहस्य का उदघाटन हुवा है | ध्यानादि क्रिया में अत्यंत स्मरण रखने योग्य है | आसन के निचे जल की बूंद के होने का तात्पर्य सूक्ष्म प्राण को जाग्रत करने की क्रियासे  है | जल को संस्कृत में परिभाषित किया गया आपः से | आपः को प्राण से सम्बोधित किया है | ये प्राण भ्रूमध्य पर स्थित करना आवश्यक है | जहाँ सुषुम्ना नाडी है | सुषुम्ना में प्राण स्थिर करने पर भक्ति का फल साधक को अवश्य प्राप्त होता है | जिससे चेतना उर्ध्वगामी होती है |                           यदि प्राण इडा और पिंगला में बहे तो वह भक्ति का फल इनदोनो नाड़ियों से इन्द्र को चला जाता है | साधक आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाता| | इन्द्र हमारे व्यक्तिव के उस चेतन्य को दर्शाता है जिसने इन्द्रियों पर शासन कर रखा है | इन्द्रियों के सुख में लीन है | वही उसके लिए स्वर्ग बना हुवा है | जब इडा में प्राण के चलते ध्यान किया जाता है तो चेतना में तम का प्रभाव जाग्रत रहता है ,जो इन्द्रियों में तत्सम्बन्धित सुख के रुपमे इन्द्र देखता है | ठीक उसी तरह पिंगला में रजो गुण का समझना चाहिए |सुषुम्ना में स्थिर प्राण इन्द्रियातीत हो कर परम की और गमन करते है | इसिलए सूक्ष्म प्राण पर आसन लगा कर सुषुम्ना का आग्रह है |

Monday, 9 September 2013

Rising of LORD GANESHA


गणेश की उत्पति के सम्बन्ध में यह विचार प्रचलित है की जब पार्वती स्नान आदि कर्म को उपस्थित थी तो स्वयं के मेल से एक बालक का निर्माण किया और पहरे पर खड़ा कर दिया | शिव के पार्वती से मिलने आने पर वह बालक प्रतिरोध करता है इस पर शिव के त्रिशूल से उस बालक  का शिरछेदन हो जाता है | तब पार्वती की गुहार पर नए सिर का आरोपण ,जो वस्तुतःनव प्रसूत हाथी का होता है ,किया जाता है | इसी को गणेश नाम से ख्याति मिली है |जो विध्नहर्ता और शुभ कर्मो में प्रथम वन्दनीय माना जाता है |लोक में इस प्रकार की आकृति का बालक रहा या नहीं इस पर विवाद हो सकता है परन्तु हमारे व्यक्तित्व में भीतर की  यात्रा में इस  हस्ती गणेश का अवश्य जन्म संभव होता है | आध्यात्म की और चलने पर हमारी बुद्धि की मलिनता को हटाना अतिआवश्यक है | संस्कृत भाषा में पार्वती का पर्याय उमा को कहा है | जिसका अर्थ बुद्धि है | बुद्धि जब आध्यात्म मार्ग पर आरूढ़ होती है तो वह उसका स्नान कर्म(ध्यान आदि क्रियाये भी कर्म है ) कहा जाना चाहिए | जल जो आपः से संबोधित है | इसका तात्पर्य कर्म से भी है | जब कर्म आदि व्यापार से शुद्धता  का ध्यान रखते हुवे व्यवहार होता है तो एक प्रकार का सूक्ष्म तत्व जिसे अहम् कहते है निर्माण होता रहता है | यह अहम् वस्तुतः बुद्धि का मल है जो बुद्धि का स्व  निर्मित है |जब तक यह सूक्ष्म अहम् द्वार पर खडा है तब तक शिव या कल्याण की आशा न्यून ही रहती है | परन्तु चुकी शिव, बुद्धि की शुद्ध क्रियायों को ध्यान में रखता है उसका मिलना अवश्यम्भावी है |सो शिव की कृपा से उस अहम् का सिर छेदन होता | लेकिन अहम् का छेदन भी त्रिशूल द्वारा संभव हो पाता है | तात्पर्य है ये शूल शिव के द्वारा प्रेषित होने से इसे कल्याण कारी मानना चाहिए | व्यवहार में कल्याण के लिए ज्ञान ,कर्म और भाव का प्रयोग ही अहम् के लिए त्रिशूल है जिससे अहम् नष्ट प्रायः सा होजाता है |अब शिव प्रत्यक्ष सामने है परन्तु पार्वती  अहम् के बिना शिव के संग रहना नहीं चाहती | अहम् को तत्क्षण अपनी हस्ती(हाथी ) का आभास होता है ,इसे ही पुराणकार हाथी के शिर रोपण से दर्शाता है | अहम् का यह रूप निर्विध्न हो कर सर्वत्र प्रसंशनीय बन कर रहता है |जिसकी अंतिम परिणति आपः (दिव्य कर्म ) में ही मानी गयी है |जिसे प्रतिमा को जल (आपः ) में बहाकर लोक में हम देखते है |