Tuesday, 19 August 2014

परमसत्ता की कल्याण वर्षा

परमसत्ता हमें सदा आनंद में क्यों नहीं रखती ,हम क्यों कुछ ही समय में दुःख के वातावरण में स्थित होने लगते है |  इसके लिए एक स्थान पर कहा गया 'भद्रं भवाति नः पुरः " हमारे अग्र मे जो स्थान है वहां भद्रता ही बरसती है | पुरः शब्द से ही पुरोहित शब्द बना है | जो   जन सामान्य में   अग्र स्थान में रह कर हित या भला करे वो ही पुरोहित है | परन्तु आध्यात्म में पुर या अग्रणी कौन है और कहाँ है , तब ज्ञात होगा की हमारे दोनों नेत्रों के मध्य का भाग ही वह पुरः है जहाँ वह पुरोहित निवास करता है | वह परम सत्ता जो भ्रूमध्य में निवास कर हमेशा ही भला करने को तत्पर है वास्तविक पुरोहित है या जो पुर में  निहित है | वह सत्ता मात्र कल्याण ही नहीं करती वरन सुख भी देने को अग्रसर हो रही है " इन्द्रश्च मृडायति नो .." | जब् ध्यान के मार्ग पर साधक उस इन्द्र को अपने पुर स्थान मे संपर्क करने लगता तो भद्र और सुख दोनों ही पदार्थ मिलते है और निश्चित रूप से मिलते है |
अब दुःख या चिंताओं में फिर फिर हम क्यों जाने लगते है इसके बारे में बताया कि " पश्चात अघं न नशत् " पश्चात का पाप न लगे | कर्म करने के  बाद जो पीछे पीछे लगा रहता है उसको अघ कहा है | कर्म अच्छा हो या बुरा उसके पीछे हमारे भीतर एक अहम का निर्माण होता है | साथ ही चित्त पर उन कर्मों कि छाप पड़ती है | जो पुनश्च कर्मो की और लगाती है | अहम और संस्कार प्रकृति के  नियमों में बंधे हमको अवांच्छित वातावरण में पटकते रहते है |
उपाय रूप में यह कहा गया की उस इन्द्र को पुर में ध्यान द्वारा प्राप्त करो वह सदा ही सुख और आनंद के लिए उपलब्ध है ,हमेशा ही कल्याण की वर्षा करता है | तब हमारा अहम और संस्कार निश्चय ही प्रकृति के बंधन से स्वतन्त्र होने की दिशा में चल पड़ेंगे |

इन्द्रश्च मृडयाति नो ,न नः पश्चात् अघं नशत् ||
भद्रं भवाति नः पुरः || ऋग् वेद २०/४१/11
 
परमसत्ता की कल्याण वर्षा