Tuesday, 3 June 2014

अंधी पुत्री का विवाह और अक्षर ब्रह्म



ब्रह्म को अक्षर कहा गया है | यह ब्रह्म समस्त शक्तियों का स्रोत है | हमारे भीतर चित और अचित स्तर से निरंतर विभिन्न प्रकार से ये धाराएं बह रही है | चित और अचित द्वार दोनों ही इस अक्षर जुड़ें है | अधिकतर मानव समूह अचित स्तर से आरही धाराओं से जुड़ा है | परिणाम स्वरूप वह ब्रह्म अज्ञात बना रहता है |जो अपने ही अक्ष पर रमन करता है वही अक्षर है | संस्कृत में अक्ष नेत्र को भी कहा गया है | अक्ष विवेक दृस्टि  है | तो अन अक्ष  अंध दृष्टि है | लोक में अंधे के लिए अनक्षा शब्द प्रयोग होता ही है | जब अचित स्तर से अक्षर ब्रह्म से प्राप्त शक्ति पर निर्भर रह कर व्यक्ति व्यवहार करता है तो वह शक्ति ब्रह्म से प्रसूत होने से पुत्री कही गई | यह अंधी पुत्री है | अचित स्तर पर अक्ष से अनक्ष की और गति होना ही अंधत्व का कारण बना हुवा है | वेद मन्त्र यह प्रश्न करता है कि इस अंधी पुत्री को कोई विद्वान ज्ञानी स्वीकार नहीं करता | इस शक्ति को इम कहा गया | इस 'इम' को ब्याहने वाला और वरण करने वाला "मेनिम" है |  यहाँ नेमी और मेनिम वर्ण विपर्यय है | नेमी चक्र कि धुरी को कहा जाता है तो मेनिम धुरी से दूर कि स्थिति है | अक्ष से दूर चैतन्य का ह्रास होता रहता है | मानवीय गुणों से रहित स्थिति बन जाती है | प्रेम ,दया करुणा लुप्त  प्राय होजाते है |  तो यहाँ कहा गया जो इस अंधी से विवाह या वरण करता है वो मेनिम है ,वह जड़ बुद्धि है | इस का छुटकारा कठिन है |अतः चित स्तर पर उस ब्रह्म से जुड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए | तब ब्रह्म से उद्भूत पुत्री अंधी नहीं कही जायेगी | फिर इस पुत्री का विवाह या वरण क्लेश परक नहीं होगा | संसार में योगी लोग जो साक्षी होने कि साधना करते है वह वस्तुत उस "अक्ष ' से जुड़ने का प्रयास ही है | होश में जीना भी  चित स्तर से अक्षर को जान कर उसीमे स्थित होने का अभ्यास है | संसार में क्लेश का मूल इस अंधी के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ना ही है | इसके साथ हमने विवाह कर लिया  अब जीवन सुखपूर्वक कैसे व्यतीत हो सकता है | इसका चुनाव भी दुखदायक है तो इसका साथ की कल्पना की जासकती है | अतः प्रत्येक कर्म को साक्षी भाव से करने में समय लगाना ही बुद्धिमानी है |
            यस्य अनक्षा दुहिता जातु आस कस्ताम् विद्वान अभिमन्यते अंधाम ,कतरो मेनिम प्रति मुच्यते य             इम वहाते य इम वा वारयेत् | ऋग्वेद १०-२७-११